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वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर पराई जाने रे।
यह महत्वपूर्ण है की मैं हमारे इस विमर्श की शुरुआत में यह बात स्पष्ट कर दूँ कि इस लेख की विषयवस्तु ‘राजनीतिज्ञ’ गाँधी से ज्यादा ‘महात्मा’ गाँधी हैं, हालाँकि दोनों को अलग कर के देखना काफी मुश्किल है। गाँधी बीसवीं सदी के उथल पुथल से भरे विभत्ष राजनितिक इतिहास में एक अलग तरह के विचार के प्रतीक हैं, जिसे न केवल मानवता ने भुला दिया बल्कि अपने शांति एवं सम्पन्नता से परिपूर्ण भविष्य की कीमत पर पराजित करने का प्रयास भी किया है, नतीजा यह है कि इंसान अपनी बीसवीं सदी कि गलतियों से कुछ सीखने कि बजाय उससे भी बदतर इक्कीसवी सदी के निर्माण में जुटा हुआ प्रतीत होता है। मानवता का यह दुर्भाग्य मुझे पोलैंड की नोबेल पुरुस्कार विजेता कवयित्री विस्लावा सिम्बोर्स्का की कविता ‘Turn of the Century’ की याद दिलाता है जिसमे वह जताती है कि कैसे बीसवीं सदी ने वह सब नहीं किया जो उस सदी में हो जाना चाहिए था। वह शिकायत करती है कि उन्हें लगता था कि आख़िरकार ईश्वर को भी एक अच्छे और ताकतवर इंसान में भरोसा करना होगा, पर इस सदी में इंसान अच्छा और ताकतवर एक साथ नहीं हो पाया। मेरे विचार में गाँधी बीसवीं सदी के अच्छे एवं ताकतवर इंसान तो थे पर ईश्वर या यूँ कहे कि मानवता ने उनके ऊपर विश्वास करने से इंकार कर दिया।
गाँधी जीवन पर्यन्त न्याय की लड़ाई लड़ते रहे मगर हम यह भूल जाते है कि उन्होंने मानव इतिहास में पहली बार न्याय की परिभाषा बदलने की कोशिश की, और यही उनकी महानता का स्रोत है। इंसान ने जो भी नैतिक एवं सामाजिक सिद्धांत न्याय की अवधारणा की इर्दगिर्द बुने है, उनका सार यह है कि न्याय कि स्थापना के लिए यह जरूरी है कि अन्याय करने वाले को उसकी गलती का अहसास दिला कर उसे सजा दी जाये ताकि उसे फिर से ऐसा करने से रोका जा सके। लेकिन समस्या इस दूसरे प्रावधान में है। यह तो आवश्यक है कि न केवल अन्याय का अपराधी बल्कि सम्पूर्ण मानवता अन्याय को पहचाने लेकिन उसके दंड स्वरुप लिया जाने वाला बदला या प्रतिकार और ज्यादा मानवीय गलतियों का कारण बनता है। द्वितीय विश्व युद्ध कि शाम को अमेरिका के महान कवि W H Auden ने अपनी रचना ‘September 1, 1939 ‘ में लिखा, ” मैं और जनता जानते हैं कि स्कूल के बच्चे क्या सीखते हैं? वो जिनके साथ बुरा हुआ है बदले में बुरा करते हैं। ” दस हज़ार सालों से इंसानो ने अपनी अगली नस्ल को यही सीखा कर बड़ा किया। उसके बाद इतिहासकार एवं विद्वान यह विश्लेषण करते रहे कि द्वितीय विश्व युद्ध का कारण मार्टिन लूथर के समय से जर्मन जाती द्वारा अर्जित किया जा रहा पागलपन था , जिसकी परिणीति लिंज़ में हिटलर के जन्म में हुई। मगर गाँधी W H Auden के तर्क को बहुत पहले समझ चुके थे, उनके अनुसार न्याय कि स्थापना के लिए अन्याय के अस्तित्व की स्वीकृति एवं तत्पश्चात अन्याय की समाप्ति तो आवश्यक है मगर उसके बाद लिया जाने वाला बदला तो अन्याय के दुष्चक्र को ही जन्म देता है। अन्याय कि समूल समाप्ति में उसका कोई योगदान नहीं हो सकता। अतः गाँधी न केवल भारत की न्यायपूर्ण स्वतंत्रता के लिए न्यायोचित साधनों से ही लड़े बल्कि बल्कि अपने विरोधियो के प्रति हिंसा एवं बदले कि भावना का पुरजोर विरोध भी किया। यह उनका एक खुशहाल एवं इंसाफ़पसन्द दुनिया के लिए सबसे बड़ा योगदान था।
परन्तु भारत की स्वतंत्रता या उसके पश्चात् भारत के कुछ सामाजिक आंदोलनों , अमेरिका एवं दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत वर्ग के संघर्षों के अलावा मानवता ने गांधीवादी न्याय के सिद्धांत की ज्यादातर अवहेलना ही की। जबकि गांधीवादी तरीको से अर्जित किया गया न्याय कहीं ज्यादा सतत एवं सफल रहा है। गाँधी ने अपने जीवनकाल में भी भारत के जाती एवं धर्म से सम्बंधित सवालों का न्यायपूर्ण हल तलाशने का प्रयास किया जो राजनितिक सत्यनिष्ठा, करुणा एवं प्रेम से प्रभावित थे। इस विषय में यह एक रोचल पहलू है की जहाँ बाबासाहेब आंबेडकर, गाँधी के राजनितिक विरोधी होने की बावजूद आपसी विमर्श के माध्यम से पहले पूना पैक्ट एवं बाद में संविधान प्रारूप समिति की अध्यक्षता स्वीकार कर उनके साथ सहमति के धरातल पर पहुंचने में सफल रहे वहीं जिन्ना अपनी विरोध की जिद पर अड़े रहे। डॉ आंबेडकर के राजनितिक संघर्ष की सफलता एवं जिन्ना के प्रयोग की विफलता आज पूरा विश्व देख रहा है। उनके राजनितिक विरोधी भी आज 70 वर्ष बाद यह बात स्वीकार करेंगे की गाँधी का रास्ता ही सभी के लिए सुरक्षित एवं संपन्न भविष्य की गारंटी दे सकता है।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जिस स्वतंत्रता की सुबह ने अंगड़ाई लेनी शुरू की थी, वह बेवक्त ही शीतयुद्ध के अँधेरे में खोने लगी। शीतयुद्ध की समाप्ति की पश्चात् भी पुराना साम्राज्यवाद नए रूप में सामने आने लगा। धर्म से जुड़े वैश्विक टकराव जिसे बीसवीं सदी ने शायद दूसरी सहस्राब्दी के प्रारम्भ में हुए धर्मयुद्धों की विषयवस्तु मानकर इतिहास की अलमारी में बंद कर दिया था वह बीसवीं सदी जाते जाते फिर से पूरब पश्चिम जंग का भूत बनकर फिर से हमारे सामने आ खड़ा हुआ। व्यापार जो पिछले पांच हज़ार सालों से मानवता को एक धागे में पिरो रहा था उसकी स्वीकार्यता बढ़ी तो सही मगर क्षणिक तौर पर ही। विश्व व्यापार के सबसे बड़े पैरोकार ही उसके सबसे बड़े विरोधी बन गए। इन् सब परिस्थितियों का होना महज एक संयोग तो नहीं है, इनके पीछे वजहें भी है और कहीं न कहीं यह वजहें नाइंसाफी से जुडी हुई है, लेकिन उस नाइंसाफी का इक्कीसवी सदी के मनुष्य के पास क्या इलाज है? वही, ” मैं और जनता जानते हैं कि स्कूल के बच्चे क्या सीखते हैं? वो जिनके साथ बुरा हुआ है बदले में बुरा करते हैं। ” गाँधी जब सबसे ज्यादा प्रासंगिक है तभी उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं। यह मानव इतिहास की त्रासदी ही है कि उसको अपने अतीत के पैगम्बरों से सीखने में बड़ी तकलीफ होती है। उससे हर सदी में नया पैगम्बर चाहिए। वरना कृष्ण कि प्रासंगिकता महाभारत के बाद, ईसा की प्रासंगिकता उनके बलिदान के बाद, पैगम्बर मुहम्मद की प्रासंगिकता अरब दुनिया के इल्हाम के बाद और गाँधी कि प्रासंगिकता 1947 के बाद समाप्त तो नहीं हो गई है।
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